Saturday, December 5, 2009

"ग़ज़ल"- मौत आती है छुपालो हमको...........

सितम्बर ०९,१९८६
विजय भाटी
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मौत आती है छुपालो हमको।

उम्रभर साथ निभाने वालों हमको॥

मै हूँ ऐगीत दर्द भरा हमदर्द मेरे।

चाहे जिस राग पे गालो हमको॥

यूँ अंधेरों में रात गुजारी रोते रोते।

सुबह होती है सुलालो हमको॥

कुछ तो फुर्सत दो खुदा की इबादत करलूँ।

दर्द-ऐ-दिल, ओ उनके ख्यालों हमको॥

ये भी क्या बात वो आए मुस्कुरा भी न सकूँ।

कुछ तो दो सुकूँ दिल के छालों हमको॥

तुमने खाई थी कसम हर हाल में रहूंगी तेरी।

आज गिरता हूँ, आगोश में उठालो हमको॥

जिद न करो के मै छूउगा भी नही।

वजह है तीन ओ पिलाने वालों हमको॥

इक धर्म की मनाही, दूजी खाई है कसम।

तीसरी पी के आया हूँ न पिलाओ हमको॥

इतनी पीकर के भी है 'विजय' प्यासा-प्यासा।

ऐ घटा सावनी अलको से नहलालो हमको॥

Saturday, November 28, 2009

भीगी पलके रीत गई....

अप्रैल ११, १९७९
विजय भाटी
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दिन की पीड़ा दिन भर सहली, रात कचौटे रात रात भर।
मेरे मन की व्यथा कथा में, भीगी पलके रीत गई॥
तेरी ही तो लौ थी जिसमे,
मैने मन का दीपक बाला।
तेरा दर्द कर्ज में लेकर,
मैंने अपना किया दिवाला॥
पर तू न बोली जाते जाते, ओ मेरी निष्ठुर प्रेयसी।
उस एक पल में ही मेरी, सारी उमरिया बीत गई॥
खड़-खड़ खड़के खिड़की किवाड़ें,
चीखे देहरी और दीवारें।
लगता नही मेरा घर है ये,
मरघट जैसा ठोर हुआ रे॥
जब से तू गई यहाँ से,मेरा भी कोई ठोर नही।
मन मारू कैसे प्रेम द्वन्द में, मै हार गया तुम जीत गई॥
तुझे देखने तेरे द्वार से,
जब भी गुजरा आते जाते।
तुने नयन चुराए मेरे
आने की आहट को पाके॥
लिखता मै श्रृंगार करूँ क्या, व्याकुल मन ने कलम छीन ली।
यादों की धुंधली स्याही से, वो लिख करुणा का गीत गई॥
सुबह उमस संध्या को कुंठा,
तड़फ बड़ी ज्यों ज्यों दोपहरी।
ब्रम्हमुहर्त तक गीने तारक,
आंखों से नींद ने आँखे फेरी॥
जीवन सूखे पेड़ की छायाँ, कपसिले बादल सा यौवन।
ओ"विजय" बताओ कब तक जीयोगे, ऋतु प्रेम,प्यार की बीत गई॥

Wednesday, November 4, 2009

●๋•तसव्वुर ●๋•

दिनांक:०३/नवम्बर/२००९
रात्रि २:४०
रात रुक जाए है, तरन्नुम का नशा छाए है,
तू ग़ज़ल बन के तसव्वुर में उतर जाए है॥
चश्म तक आए तो बन जाए है गम की बदरी,
लब तलक आए तो कोई गीत गुनगुनाए है॥
दिल की बेताबियों, तनहाइयों ने बदली करवट,
सर्द हवा छू के कोई शरारा सा गुजर जाए है॥
फ़िर तेरी याद ने आकर संभाला मुझको,
तल्ख़ लम्हों में शीरी सी घुली जाए है॥
उनींदी रात है, बोझिल साँसें, पथरीली पलकें,
नींद नही आए हो "विजय" न आए तो किधर जाए है॥
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(विजय भाटी)

Monday, October 12, 2009

तुम्हारा साथ......


अवतल उत्तल रहो पर,
तुम्हारा साथ,
समतल आभास।
नीरव नयन अंधे अधर,
फ़िर भी कहता रहा तुम से,
ये अवाक् मन
अपनी या मेरी तुम्हारी,
कहानी
इन नैनो में वर्णित तुम,
जैसे पाषाण पर गढ़ी,
ए़क मूर्ती।
इन अधरों पर अंकित तुम,
जैसे ए़क खामोश पुस्तक,
न कहते हुए भी सब कुछ कहती है।
कहती रहती है।
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विजय भाटी
२७ जून १९७७

Sunday, October 11, 2009

बिन्दू क्षय


मै जानता हूँ यह अन्याय हुआ है
भीग कर आह में ,
कुछ शब्द बोले
मेरी प्रिय .........तुम कितनी बेवफा.....
कुछ अक्षर लिख गए।
मेरी आंखे उस खिड़की तक गई थी,
अभी -अभी थी तुम ,
अभी -अभी...! अभी - अभी नहीं थी।
शायद अब तुम वो,
नहीं !... नहीं !!...नहीं !!!...
कोई और हो,
क्योंकि, वो सात जन्मों तक मुझसे,
रूठ नहीं सकती।
पंगु मन
पागल हो रोया,
आँखों का कितना अपव्यय हुआ,
दृग जल से बिन्दू क्षय हुआ।
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विजय भाटी
उज्जैन (म.प्र.)
२१ जून १९७७