Monday, October 12, 2009

तुम्हारा साथ......


अवतल उत्तल रहो पर,
तुम्हारा साथ,
समतल आभास।
नीरव नयन अंधे अधर,
फ़िर भी कहता रहा तुम से,
ये अवाक् मन
अपनी या मेरी तुम्हारी,
कहानी
इन नैनो में वर्णित तुम,
जैसे पाषाण पर गढ़ी,
ए़क मूर्ती।
इन अधरों पर अंकित तुम,
जैसे ए़क खामोश पुस्तक,
न कहते हुए भी सब कुछ कहती है।
कहती रहती है।
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विजय भाटी
२७ जून १९७७

Sunday, October 11, 2009

बिन्दू क्षय


मै जानता हूँ यह अन्याय हुआ है
भीग कर आह में ,
कुछ शब्द बोले
मेरी प्रिय .........तुम कितनी बेवफा.....
कुछ अक्षर लिख गए।
मेरी आंखे उस खिड़की तक गई थी,
अभी -अभी थी तुम ,
अभी -अभी...! अभी - अभी नहीं थी।
शायद अब तुम वो,
नहीं !... नहीं !!...नहीं !!!...
कोई और हो,
क्योंकि, वो सात जन्मों तक मुझसे,
रूठ नहीं सकती।
पंगु मन
पागल हो रोया,
आँखों का कितना अपव्यय हुआ,
दृग जल से बिन्दू क्षय हुआ।
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विजय भाटी
उज्जैन (म.प्र.)
२१ जून १९७७